कबीर दास के दोहे में कस्तूरी की उपमा बहुत सार्थक और सार्वजनिक है। कबीर जी ने कहा है, "कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूँढ़त बन माहि। ज्यों ज्यों ध्यान धरे धरि, त्यों त्यों मीले ताहि।" यह दोहा सार्थक रूप से बताता है कि कस्तूरी एक खुशबूदार पदार्थ है जो हिरण के नाभि में होता है। हिरण इस खुशबू की खोज करता है, परन्तु वह उसे कभी नहीं पा सकता क्योंकि कस्तूरी अपना खुशबू स्वयं प्रसारित नहीं करता है। इसी तरह, व्यक्ति को अपने भाग्य या परमात्मा की खोज में लगना चाहिए, जैसे हिरण कस्तूरी की खोज में लगा रहता है। जैसे कस्तूरी कुंडल से मृग के पास नहीं जा सकता है, ठीक उसी तरह हमें अपने आत्मा की खोज में लगे रहना चाहिए।